सुदर्शन
लेखक
सुदर्शन (1895-1967) प्रेमचन्द परम्परा के कहानीकार हैं।
इनका दृष्टिकोण सुधारवादी है।
ये आदर्शोन्मुख यथार्थवादी (Idealistic realistic) हैं।
सुदर्शन हिन्दी और उर्दू में लिखते रहे हैं।
अपनी प्रायः सभी प्रसिद्ध कहानियों में इन्होंने समस्यायों का आदर्शवादी समाधान प्रस्तुत किया है।
सुदर्शन की भाषा सरल, स्वाभाविक, प्रभावोत्पादक और मुहावरेदार है। इनका असली नाम बदरीनाथ है।
"'बात अठन्नी की' कहानी समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की ओर इशारा करते हुए न्याय व्यवस्था पर सवाल खड़ी करता है। आइए कहानी की व्याख्या और सारांश सुने।"
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वेतन - आय
मैत्री - मित्रता
सौगंध - कसम
पेशगी - अग्रिम ( पहले) दिया जाने वाला धन
बटोरना - इकट्ठा करना
तनख्वाह - वेतन
गुज़ारा - निर्वाह
निर्दयता - क्रूरता
आँखों में खून उतर आना - बहुत क्रोध आना
रंग उड़ना - घबरा जाना
आँखें भर आना - दया आना
लातों के भूत बातों से नहीं मानते - दुष्ट व्यक्ति पर समझाने-बुझाने का प्रभाव नहीं पड़ता।
रसीला इंजीनियर बाबू जगतसिंह के यहाँ नौकरी करता है।
वह एक ईमानदार, सीधा व स्वामिभक्त नौकर था।
वह सोचता था कि बाबू जी उस पर बहुत विश्वास करते हैं। अत: कम तनख्वाह होने पर भी किसी दूसरे के यहाँ जाकर नौकरी नहीं करना चाहता था।
उसके बूढ़े पिता, पत्नी और तीन बच्चे गाँव में रहते थे। वह अपनी सारी तनख्वाह गाँव भेज दिया करता था।
एक बार पाँच रुपए की मिठाई मँगवाने पर रसीला साढ़े चार रुपए की मिठाई लाया। उसने ५० पैसे की हेरा-फेरी की थी।
'बात अठन्नी की' कहानी का शीर्षक प्रतीकात्मक शीर्षक है। जब कहानी का शीर्षक किसी विशेष अर्थ की ओर इंगित करता है तब उस शीर्षक को प्रतीकात्मक कहते हैं।
'बात अठन्नी की' कहानी समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की ओर इशारा करते हुए न्याय व्यवस्था पर सवाल खड़ा करता है।
प्रस्तुत कहानी में रसीला अपने मित्र रमजान का कर्ज़ चुकाने के लिए अपने मालिक बाबू जगत सिंह के दिए गए पाँच रुपए से अठन्नी बचाकर अपने मित्र रमजान को दे देता है। रिश्वतखोर मालिक जगत सिंह ने रसीला को पाँच रुपए मिठाई लाने के लिए दिए थे और उन्होंने उसकी चोरी पकड़ ली। रसीला अपना अपराध स्वीकार कर लेता है। रसीला पर मुकदमा चला और रिश्वतखोर शेख सलीमुद्दीन ने उसे छह महीने की सज़ा सुना दी। लेखक कहता है कि ''पाँच सौ के चोर नरम गद्दों पर मीठी नींद ले रहे थे, और अठन्नी का चोर जेल की तंग, अंधेरी कोठरी में पछता रहा था।''अत: कहानी का शीर्षक सटीक है।
(हिंदी की कॉपी में लिखें)मूल्यांकन
प्रश्न
"अभी सच और झूठ का पता चल जाएगा। अब सारी बात हलवाई के सामने ही कहना।"
(i) प्रस्तुत वाक्य का वक्ता कौन है ? श्रोता का परिचय दीजिए।
(ii) "अभी सच और झूठ का पता चल जाएगा" -- बाबू जी के इस कथन के पीछे छिपे संदर्भ को स्पष्ट रूप में लिखिए।
(iii) बाबू जगतसिंह कौन थे ? उन्होंने रसीला से ऐसा क्या कहा जो उसके चेहरे का रंग उड़ गया ? रसीला की प्रतिक्रिया भी लिखिए।
(iv) रसीला के झूठ बोलने का पता चलने पर बाबू जगतसिंह ने रसीला के साथ कैसा व्यवहार किया ? उनका व्यवहार आपको कैसा लगा?
[2+2+3+3]
जन्म:1895 - निधन:1963
लेखक परिचय
सियारामशरण गुप्त का जन्म सेठ रामचरण कनकने के परिवार में श्री मैथिलीशरण गुप्त के अनुज के रूप में चिरगाँव, झांसी में हुआ था।
प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने घर में ही गुजराती, अंग्रेजी और उर्दू भाषा सीखी।
सन् 1929 ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और कस्तूरबा गाँधी के सम्पर्क में आये।
उनकी पत्नी तथा पुत्रों का निधन असमय ही हो गया था अतः वे दु:ख वेदना और करुणा के कवि बन गये। 1914 ई. में उन्होंने अपनी पहली रचना मौर्य विजय लिखी।
सियारामशरण गुप्त गांधीवाद की परदु:खकातरता, राष्ट्रप्रेम, विश्वप्रेम, विश्व शांति, सत्य और अहिंसा से आजीवन प्रभावित रहे। इनके साहित्य में शोषण, अत्याचार और कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष का स्वर विद्यमान है।
गुप्त जी की भाषा सहज तथा व्यावहारिक है। 1941 ई. में इन्हें नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी द्वारा "सुधाकर पदक" प्रदान किया गया।
"काकी" सियारामशरण गुप्त की एक प्रसिद्ध कहानी है। कहानी में एक बच्चा अपनी काकी (माँ) की मृत्यु से दुखी है। वह यह नहीं समझता है कि मृत्यु क्या है। सब उससे कहते हैं कि उसकी काकी आसमान में चली गई है। बच्चा अपने भोलेपन में पतंग के माध्यम से काकी को वापस लाने की कोशिश करता है। बालमन किस तरह की अबोध कल्पना करता है, यह कहानी इसी बात की सफल अभिव्यक्ति करती है।
कठिन शब्दार्थ
विलाप - बिलख-बिलखकर रोना
कुहराम - उपद्रव, शोरगुल
रुदन - रोना
उत्कंठित - अधीर, लालायित
स्टूल - छोटा मेज
प्रफुल्ल - प्रसन्न, खिला हुआ
मुखबिर - भेद खोलने वाला
अन्यमनस्क - जिसका मन कहीं और लगा हो
समवयस्क - समान आयु का
अनंतर - उसके पश्चात
कहानी का उद्देश्य
प्रस्तुत कहानी "काकी" एक बाल-मनोवैज्ञानिक कहानी है। जिसमें एक बालक के मातृ-वियोग की पीड़ा को दर्शाया गया है। कहानी में श्यामू माँ की मृत्यु के बाद उस पीड़ा को सहन नहीं कर पाता है और उसका मन कहीं नहीं लगता है। जीवन-चक्र से अनभिज्ञ वह अपनी माँ को ईश्वर के यहाँ से लाने के लिए पैसों की चोरी करता है और डोरी मँगवाता है जिसकी सहायता से वह अपनी मरी माँ को आकाश से नीचे धरती पर ला सके। इस प्रकार यह साबित होता है कि बालकों का हृदय अत्यंत कोमल, भावुक और संवेदनशील होता है और वे मातृ-वियोग की पीड़ा को सहन नहीं कर पाते हैं।
श्यामू का परिचय
श्यामू विश्वेश्वर का पुत्र है और उसकी काकी (माँ) का देहांत हो चुका है। वह एक अबोध बालक है। वह अपनी माँ से बहुत प्यार करता है और उसका वियोग सह नहीं सकता। वह जन्म-मृत्यु के सत्य से अनजान है इसलिए उसे लगता है कि उसकी माँ ईश्वर के पास गई है जिसे वह पतंग और डोर की सहायता से नीचे उतार सकता है। इसके लिए वह अपने पिता के कोट की जेब से पैसे चोरी करता है।
भोला का परिचय
भोला सुखिया दासी का लड़का था और श्यामू का हमउम्र था। वह श्यामू से अधिक चतुर और समझदार था, इसलिए वह उसे सलाह देता है कि श्यामू मोटी रस्सी मँगवा ले। पतली रस्सी से काकी नीचे नहीं उतर पाएगी और रस्सी के टूटने का भय भी बना रहेगा। भोला बहुत डरपोक भी था, इसलिए विश्वेश्वर के एक ही डाँट से वह सारा रहस्य उजागर कर देता है।
"वर्षा के अनंतर एक दो दिन में ही पृथ्वी के ऊपर का पानी तो अगोचर हो जाता है, परंतु भीतर-ही-भीतर उसकी आर्द्रता जैसे बहुत दिन तक बनी रहती है, वैसे ही उसके अंतस्तल में वह शोक जाकर बस गया था।"
प्रश्न
(i) यहाँ किसकी बात की जा रही है ? उसका परिचय दीजिए।
(ii) उपर्युक्त पंक्तियों का संदर्भ स्पष्ट कीजिए।
(iii) उसके व्यवहार में क्या परिवर्तन आया ? पंक्तियों के माध्यम से स्पष्ट कीजिए।
(iv) "बालक का हृदय अत्यंत कोमल, भावुक और संवेदनशील होता है और वे मातृ-वियोग की पीड़ा को सहन नहीं कर पाते" - प्रस्तुत कहानी "काकी" के माध्यम से स्पष्ट कीजिए।
यशपाल जैन का जन्म 1 सितम्बर 1912 को विजयगढ़ ज़िला अलीगढ़ में हुआ था। सस्ता साहित्य मंडल के प्रकाशन के पीछे मुख्यत: आप ही का परिश्रम था। आपने सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन के मंत्री के रूप में हिंदी की सेवा की । आपने अनेक उपन्यास, कहानी संग्रह, एक आत्मकथा, तीन प्रकाशित नाटक, कविता संग्रह, यात्रा वृत्तांत, व संग्रहों का प्रकाशन व संपादन किया।
इनकी रचनाओं में नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों को गंभीरता से उभारा गया है।
यशपाल की भाषा अत्यंत व्यावहारिक है जिसमें आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया गया है।
ISHITA SINGH 9H
महायज्ञ का पुरस्कार कहानी का पाठ
कठिन शब्दार्थ
पौ फटना - सूर्योदय
आद्योपांत - शुरू से अंत तक
कोस - लगभग दो मील के बराबर नाप
तहखाना - ज़मीन के नीचे बना कमरा
प्रथा - रिवाज़
बेबस - विवश
धर्मपरायण - धर्म का पालन करने वाला
विस्मित - हैरान
कृतज्ञता - उपकार मानना
उल्लसित - प्रसन्न
विपदग्रस्त - मुसीबत में फँसे
महायज्ञ का पुरस्कार, यशपाल जी द्वारा लिखी गयी प्रसिद्ध कहानी है। इसमें उन्होंने एक काल्पनिक कथा का आश्रय लेकर परोपकार की शिक्षा पाठकों को दी है। एक धनी सेठ था। वह स्वभाव से अत्यंत विनर्म, उदार और धर्मपरायण व्यक्ति था। कोई साधू संत उसके द्वार से खाली वापस नहीं लौटता था। वह अत्यंत दानी था। जो भी उसके सामने हाथ फैलता था, उसे दान अवश्य मिलता था। उसकी पत्नी भी अत्यंत दयालु व परोपकारी थी। अकस्मात् दिन फिर और सेठ को गरीबी का मुख देखना पड़ा। नौबत ऐसी आ गयी की भूखों मरने की हालत हो गयी। उन दिनों एक प्रथा प्रचलित थी। यज्ञ के पुण्य का क्रय - विक्रय किया जाता था। सेठ - सेठानी ने निर्णय लिया किया की यज्ञ के फल को बेच कर कुछ धन प्राप्त किया जाय ताकि गरीबी कुछ गरीबी दूर हो। सेठ के यहाँ से दस - बारह कोस की दूरी पर कुन्दनपुर नाम का क़स्बा था। वहां एक धन्ना सेठ रहते थे। ऐसी मान्यता थी कि उनकी पत्नी को दैवी शक्ति प्राप्त है और वह भूत - भविष्य की बात भी जान लेती थी। मुसीबत से घिरे सेठ - सेठानी ने कुन्दनपुर जाकर उनके हाथ यग्य का पुण्य बेचने का निर्णय लिया। सेठानी पड़ोस के घर से आता माँग चार रोटियां बनाकर सेठ को दे दी। सेठ तड़के उठे और कुन्दनपुर की ओर चल पड़े। गर्मी के दिन थे। रास्ते में एक बाग़ देखकर उन्होंने सोचा की विश्राम कर थोडा भोजन भी कर लें। सेठ ने जैसे ही अपनी रोटियाँ निकाली तो उसके सामने एक मरियल सा कुत्ता नज़र आया। सेठ को दया आई और उन्होंने एक - एक करके अपनी साड़ी रोटियाँ कुत्ते को खिला दी। स्वयं पानी पीकर कुन्दनपुर पहुँचे तो धन्ना सेठ की पत्नी ने कहा कि अगर आप आज का किया हुआ महायज्ञ को बेचने को तैयार हैं तो हम उसे खरीद लेंगे अन्यथा नहीं। सेठ जी अपने महायज्ञ को बेचने को तैयार नहीं हुए वह खाली हाथ लौट आये। अगले दिन ही सेठ जी अपने घर की दहलीज़ के नीचे गडा हुआ खज़ाना मिला। उसने जो मरियल कुत्ते को अपनी रोटी खिलाई थी, यह खज़ाना उसी महायज्ञ का पुरस्कार था। ईश्वर भी उन्हीं की सहायता करता जो गरीब, दुखिया, निस्सहाय की सहायता करता है। हमारे अच्छे कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाते है। हमें हमेशा अच्छे कर्म करते रहने चाहिए तभी जीवन सफल होगा।
कहानी का उद्देश्य
यशपाल द्वारा रचित कहानी महायज्ञ का पुरस्कार का उद्देश्य यह प्रदर्शित करना है कि अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए धन-दौलत लुटाकर किया गया यज्ञ, वास्तविक यज्ञ नहीं हो सकता बल्कि नि:स्वार्थ और निष्काम भाव से किया गया कर्म ही सच्चा महायज्ञ कहलाता है। स्वयं कष्ट सहकर दूसरों की सहायता करना ही मानव-धर्म है। सेठ ने भूखे कुत्ते को रोटी खिलाना अपना मानवीय कर्म समझा न कि महायज्ञ। उन्होंने अपने कर्म को मानवीय-कर्त्तव्य समझा और उसे धन्ना सेठ को नहीं बेचा तथा ऐसे कर्त्तव्य के लिए अभावग्रस्त परिस्थिति में भी मूल्य स्वीकार न कर एक आदर्श स्थापित किया।
ईश्वर की कृपा-दृष्टि से सेठ को अपने घर में एक तहखाने में हीरे-जवाहरात मिले। यह सेठ के महायज्ञ का पुरस्कार था।
शीर्षक की सार्थकता
कहानी का शीर्षक 'महायज्ञ का पुरस्कार' कहानी के घटनाक्रम के अनुसार पूर्णतया उचित है। सेठ ने अनेक यज्ञ किए थे। निर्धनता के दिनों में उसने अपने एक यज्ञ के फल को बेचकर धन प्राप्त करने का निश्चय किया। इसके लिए वह धन्ना सेठ के यहाँ गया, जहाँ धन्ना सेठ की पत्नी ने उन्हें अपना महायज्ञ बेचने के लिए कहा। भूखे कुत्ते को भोजन करवाना सेठ का सर्वोत्तम यज्ञ था, जिसका मूल्य स्वीकारना उसने उचित न समझा। इससे यह सिद्ध होता है कि नि:स्वार्थ और निष्काम भाव से किया गया कर्म ही सच्चा महायज्ञ कहलाता है। स्वयं कष्ट सहकर दूसरों की सहायता करना ही मानव-धर्म है, जिसके कारण ईश्वर ने सेठ को अपार धन प्रदान कर पुनः धनी बना दिया।
इस तरह कहानी में घटित सभी घटनाएँ यज्ञ से संबंधित हैं, जो शीर्षक की सार्थकता सिद्ध करता है।
सेठ का चरित्र
सेठ अत्यंत उदार प्रवृत्ति के थे। गरीब होने पर भी उन्होंने अपने कर्त्तव्य को सदैव सर्वोपरि माना और उसी के अनुरूप आचरण दिखाया। स्वयं भूखे रहकर भी एक भूखे कुत्ते को अपनी चारों रोटियाँ खिला दीं। धन्ना सेठ की त्रिलोक-ज्ञाता पत्नी ने सेठ के इस कृत्य को महायज्ञ की संज्ञा दी, तो सेठ ने इसे केवल कर्त्तव्य-भावना का नाम दिया। सेठ का मानना था कि भूखे कुत्ते को रोटी खिलाना मानवोचित कर्त्तव्य है।
"उन दिनों एक कथा प्रचलित थी। यज्ञों के फल का क्रय-विक्रय हुआ करता था। छोटा-बड़ा जैसा यज्ञ होता, उनके अनुसार मूल्य मिल जाता। जब बहुत तंगी हुई तो एक दिन सेठानी ने कहा, "न हो तो एक यज्ञ ही बेच डालो!"
प्रश्न
(i) उन दिनों क्या प्रथा प्रचलित थी?
(ii) सेठानी ने एक यज्ञ बेचने का सुझाव क्यों दिया?
(iii) भूखे कुत्ते को रोटियाँ खिलाने को सेठ ने महायज्ञ क्यों नहीं माना?
(iv) कहानी के अनुसार महायज्ञ क्या था? इसके बदले में सेठ को क्या मिला?
लेखक परिचय
हरिशंकर परसाई हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंग्यकार थे।
उनका जन्म होशंगाबाद, मध्य प्रदेश में हुआ था।
उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने–सामने खड़ा करती है, जिनसे किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है।
लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है।
परसाई जी की भाषा अत्यंत सहज होते हुए भी बात को तीखे अंदाज़ में कहने में समर्थ है।
कहानी से पहले
जनतंत्र क्या है ?
जनतंत्र का मतलब होता है जनता द्वारा जनता का शासन ,जनतंत्र में सत्ता आम आदमी के हाथ में होती है , पर यहाँ तो जनतंत्र के मायने कुछ और ही बन कर रह गए हैं ! ये जो लोग सत्ता में बैठे हैं ये आम आदमी के सेवक हैं, इन्हें जो सम्मान, जो शक्ति दी गयी है वह सिर्फ एक स्वस्थ व्यवस्था संचालन के लिए दी गयी है न कि आम आदमी का खून चूसने के लिए !
भारत में जनतंत्र या लोकतंत्र के चार स्तम्भ माने गए हैं -विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता जिनके द्वारा देश की शासन- व्यवस्था सुचारू रूप से चलती है। जनतंत्र में राजनैतिक दलों की अहम भूमिका होती है क्योंकि चुनाव के बाद जिस राजनैतिक दल को पूर्ण बहुमत मिलता है, वह संसद में सरकार का गठन करता है और जनहित तथा जन-कल्याण के लिए नीति-कानून का निर्माण करता है।
जब सत्ताधारी वर्ग भ्रष्ट और बेईमान हो जाता है तब वह सिर्फ़ अपने हितों की रक्षा करता है एवं जन-कल्याण की भावना से विमुख हो जाता है।
यह स्थिति किसी भी राष्ट्र के लिए अत्यंत घातक और विध्वंसकारी साबित होती है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा और मज़बूत लोकतांत्रिक देश है किन्तु यहाँ की अशिक्षा लोकतांत्रिक शक्तियों को कमज़ोर बनाती है। अशिक्षा के कारण भ्रष्ट नेतागण आसानी से अपने चापलूस कवि-लेखक-पत्रकार और धर्मगुरुओं की सहायता से अपने पक्ष में जनमत तैयार करने में सफल हो जाते हैं और सत्ता पर सहजता से उनका नियंत्रण स्थापित हो जाता है।
कठिन शब्दार्थ
सहस्रों - हज़ारों
अवरुद्ध - रुका हुआ
क्षुद्र - छोटा
प्रतिनिधि - नुमाइंदा
सर्वशक्तिमान - सब शक्तियों से युक्त
मुखारविंद - सुंदर मुख
कोरस - समूह गान
सर्वत्र - सब जगह
बंधुत्व - भाईचारा
अंत्येष्टि क्रिया - मृतक का अंतिम कर्म
भावातिरेक - भावों की अधिकता
अजायबघर - म्यूज़ियम, संग्रहालय
अर्पित करना - भेंट करना
फ़ीसदी - प्रतिशत
विचारक - चिन्तक
धर्मगुरु - धर्म की शिक्षा देने वाला
कहानी और प्रतीक
भेड़ें
भेड़ें भोली-भाली जनता कi प्रतीक हैं जो अपने भविष्य को सँवारने के लिए तथा भय-मुक्त समाज का निर्माण करने के लिए अपने जन-प्रतिनिधियों को चुनने का निर्णय लेते हैं। वे एक क्रांतिकारी परिवर्तन चाहते हैं जिससे पूरे समाज में खुशी की लहर दौड़ पड़े और उनके सारे भय दूर हो जाएँ तथा शांति, बंधुत्व और सहयोग पर आधारित समाज की स्थापना हो सके।
भेड़िए - सत्ताधारी भ्रष्ट शोषक वर्ग के प्रतीक हैं।
भेड़िए - सत्ताधारी भ्रष्ट शोषक वर्ग के प्रतीक हैं। शोषक वर्ग अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए मिथ्या प्रचार कर सत्ता में आता है और अपने स्वार्थ की पूर्ति करता है। यह वर्ग भ्रष्ट और बेईमान हो जाता है तब वह सिर्फ़ अपने हितों की रक्षा करता है एवं जन-कल्याण की भावना से विमुख हो जाता है।
सियार
सियार समाज के स्वार्थी और अवसरवादी भ्रष्ट चापलूस लोगों के प्रतीक हैं। ऐसे लोग शोषक वर्ग की दया पर पलते हैं और उनके हर अनैतिक और गलत कार्यों में उनका साथ देते हैं। बूढ़ा सियार भी भेड़िये द्वारा फेंकी गई हड्डियों को चूस-चूसकर खाता था। इन लोगों की स्वार्थपरता इन्हें मानवता-विरोधी बना देती है। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए ही सियारों ने चुनाव में भेड़िये का प्रचार किया था।
कहानी : एक नज़र
पशु समाज की खुशी का कारण यह था कि वन-प्रदेश में सभ्यता के विकास के उपरांत एक अच्छी शासन-व्यवस्था की स्थापना के लिए प्रजातांत्रिक सरकार के लिए चुनाव की आवश्यकता महसूस की गई।
पशु-समाज ने अपने भविष्य को सँवारने के लिए तथा भय-मुक्त समाज का निर्माण करने के लिए वन-प्रदेश में अपने जन-प्रतिनिधियों को चुनने का निर्णय लिया। यह एक क्रांतिकारी परिवर्तन था जिससे पूरे वन-प्रदेश में खुशी की लहर चल पड़ी। भेड़ों ने सोचा कि अब उनका भय दूर हो जाएगा तथा शांति, बंधुत्व और सहयोग पर आधारित समाज की स्थापना हो पाएगी।
चुनाव की घोषणा होते ही भेड़ियों ने यह सोचा कि अब उनका संकटकाल आ गया है। वन-प्रदेश में भेड़ों की संख्या बहुत ज्यादा है इसलिए चुनाव के बाद पंचायत में उनका ही बहुमत होगा और वे अपने हितों की सुरक्षा के लिए कानून बनवाएँगे कि कोई पशु किसी को न मारे। ऐसी स्थिति में भेड़ियों को घास चरना सीखना पड़ेगा।
चुनाव के समय भेड़ियों का प्रचार सियारों ने किया। बूढ़े सियार और तीन रंगे सियारों ने भेड़िये को संत बताकर उसकी झूठी प्रशंसा की थी और उनके पक्ष में जनमत तैयार किया था। पीले सियार ने कवि और लेखक की, नीले सियार ने पत्रकार की और हरे सियार ने धर्मगुरु की भूमिकाएँ निभाई थीं।
भेड़ों को यह विश्वास हो गया था कि भेड़िया अब संत बन गया है। वह शाकाहारी बन चुका है। उसका हृदय-परिवर्तन हो गया है। यदि भेड़िया चुनाव में जीता तो वह भेड़ों के हितों की रक्षा के लिए कार्य करेगा और उनके विजयी होने पर भेड़ निर्भय होकर जीवन बिता सकेंगी।
भेड़ें अत्यंत ही नेक, ईमानदार, कोमल, विनयी, दयालु और निर्दोष थीं और वे भ्रष्ट सियारों की बातों में आकर भेड़ियों को अपना शुभचिन्तक तथा हितरक्षक मानने लगी थीं और उन्होंने भेड़िए को अपना मत देकर चुनाव में विजयी बनाया।
चुनाव में जीतने के बाद पंचायत में भेड़िये प्रतिनिधि बनकर आए और उन्होंने भेड़ों के हितों की भलाई के लिए पहला कानून यह बनाया कि हर भेड़िये को सवेरे नाश्ते के लिए भेड़ का एक मुलायम बच्चा, दोपहर के भोजन में एक पूरी भेड़ और शाम को स्वास्थ्य के ख्याल से आधी भेड़ दी जाए।
कहानी का उद्देश्य
भेड़ें और भेड़िये एक व्यंग्यात्मक तथा प्रतीकात्मक कहानी है| इस कहानी द्वारा लेखक ने भ्रष्ट, अवसरवादी नेताओं तथा शोषक वर्ग(भेड़िये) पर करारा व्यंग्य किया है जो चालाक , हिंसात्मक और बनावटी होते हैं और अपना उल्लू सीधा करने के लिए भोली-भाली जनता को मूर्ख बनाकर उनका विश्वास जीत लेते हैं और फिर पद प्राप्त करते ही उनका शोषण करते हैं।
इस कहानी में भी भेड़ें भोली-भाली जनता का प्रतिनिधित्व करती हैं तो भेड़िये उन शोषक दलों का परिचायक है, जो अपना काम निकलते ही जनता को निगल जाते हैं और जनता के खिलाफ कानून बनाते हैं न कि उनके हित के लिए।
शीर्षक की सार्थकता
किसी भी कहानी का शीर्षक उसका सबसे महत्वपूर्ण अंग होता है। हम उसके सहारे कथा के विस्तार को जान पाते हैं। प्रस्तुत कहानी एक प्रतीकात्मक कहानी है, जिसमें भेड़ों को जनता तथा भेड़ियों को चालक नेताओं का प्रतीक बना कर व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है। कहानी में भेड़ें आम जनता की तरह हमेशा अपने नेताओं पर विश्वास कर लेती हैं और अंत में ठगी जाती है। दूसरी तरफ संत का रूप धरे नेतागण है जो ढोंग और चतुराई से जनता को हमेशा धोखा देते रहते हैं। रंगे हुए सियार नेताओं के आसपास बने रहने वाले कवि ,पत्रकार, नेता और धर्मगुरु आदि के रूप में रहते हैं। ये सभी भ्रष्ट नेताओं को सहयोग देते हैं तथा उनका प्रचार भी करते हैं। अतः इस कहानी के माध्यम से लेखक ने आज की राजनीति पर करारा व्यंग्य किया है। शीर्षक की दृष्टि से देखा जाए तो यह अत्यंत उचित व सार्थक है।
यह एक भेड़िये की कथा नहीं है, यह सब भेड़ियों की कथा है। सब जगह इस प्रकार प्रचार हो गया और भेड़ों को विश्वास हो गया कि भेड़िये से बड़ा उनका कोई हित-चिन्तक और हित-रक्षक नहीं है।
प्रश्न
(i) "यह सब भेड़ियों की कथा है" - इस कथन का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
(ii) चुनाव के समय भेड़िये का प्रचार किसने और किस प्रकार किया ?
(iii) भेड़ों को क्या विश्वास हो गया था और क्यों ? समझाकर लिखिए।
(iv) सियारों ने भेड़िये का प्रचार क्यों किया था?
जयशंकर प्रसाद
जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1889 - 14 जनवरी 1937) हिन्दी कवि, नाटकार, कथाकार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की। प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी मे क्वींस कालेज में हुई, किंतु बाद में घर पर इनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध किया गया, जहाँ उन्होंने संस्कृत, हिंदी, उर्दू, तथा फारसी का अध्ययन किया।
प्रसाद की रचनाओं में प्रेम, सौन्दर्य, देशभक्ति व प्रकृति-चित्रण का वर्णन मिलता है। उनकी आस्था भारतीय संस्कृति एवं मानवतावाद में रही है। वे राष्ट्रीय भावना तथा स्वदेश प्रेम को अधिक महत्त्व देते हैं।
प्रसाद की भाषा में संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली का प्रयोग किया गया है।
प्रमुख रचनाएँ - चित्राधार, झरना, लहर, प्रेम-पथिक, आँसू, कामायनी, तितली, कंकाल, चंद्रगुप्त, अजातशत्रु आदि।
शब्दार्थ
उज्ज्वल - चमकीला
आलोक खंड - रोशनी का हिस्सा
प्रतिमा - मूर्ति
निर्झरिणी - झरना
प्रतिबिम्ब - छाया
वैधव्य - विधवापन
अवलंब - सहारा
संखिया - एक प्रकार का ज़हर
दुर्वह - जिसे संभालना मुश्किल हो
मृग मरीचिका - आधारहीन भ्रम, छलावा
बजरा - छत वाली नाव
दुश्चरित्रा - बुरे चरित्र वाली
विक्षिप्त - पागल
निश्वास - लम्बी साँस छोड़ना
कहानी से पहले
सन्देह (संज्ञा पुं॰) का अर्थ है -
संशय
शंका
शक
सन्देह (Doubt) मन की उस स्थिति का नाम है जिसमें मन दो या अधिक परस्पर विरोधी प्रतिज्ञप्तियों (propositions) के बीच में झूलता रहे और तय न कर पाये कि इनमें से सत्य क्या है।
वह ज्ञान जो किसी पदार्थ की वास्तविकता के विषय में स्थिर न हो ।
किसी विषय में ठीक या निश्चित न होनेवाला मत या विश्वास ।
एक प्रकार का अर्थालंकार के संदर्भ में भी संदेह शब्द का प्रयोग मिलता है। यह उस समय माना जाता है जब किसी चीज को देखकर संदेह बना रहता है, कुछ निश्चय नहीं होता ।
'भ्रांति' में और 'संदेह' में यह अंतर है किं भ्रांति में तो भ्रमवश किसी एक वस्तु का निश्चय हो भी जाता है, पर इसमें कुछ भी निश्चय नहीं होता ।
कहानी : एक नज़र
संदेह कहानी जयशंकर प्रसाद जी द्वारा लिखी गई है, जिसमें उन्होंने बताया है कि विभिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ किस प्रकार मनुष्य के मन में भ्रम एवं संदेह उत्पन्न करके उसे विचलित कर देती हैं। रामनिहाल परिश्रमी, शिक्षित तथा महत्वाकांक्षी युवक है, जो नौकरी की तलाश में श्यामा के घर आकर रहने लगता है। वह अब वहीँ, उसी शहर में काम करते हुए अपना भविष्य बनाना चाहता हैं। श्यामा उस मकान की मालकिन है, जो एक विधवा का जीवन व्यतीत कर रही हैं। रामनिहाल को श्यामा से एकतरफा प्यार हो जाता है, जबकि श्यामा अपनी पूरी निष्ठा, पतिव्रता और तत्परता के साथ रामनिहाल को अपना एक मित्र मानती है। इसी बीच ब्रजमोहन के घर मेहमान के रूप में मोहन और मरोमा का आगमन होता है। समयाभाव के कारण ब्रजमोहन, रामनिहाल से अपने मेहमानों को बनारस के घाटों के भ्रमण करवाने का आग्रह करता है। रामनिहाल ,मोहन और मरोरमा को घाटों के भ्रमण के लिए साथ में ले जाता है, जिसमें दौरान रामनिहाल मनोरमा के पारिवारिक क्लेश से परिचित होता है। भ्रमण करने के दौरान मोहन अपनी पत्नी पर संदेह व्यक्त करते है कि वह ब्रजकिशोर से मिल कर संपत्ति हड़पना चाहती है। मनोरमा धीरे से रामनिहाल से अपनी विपत्ति में सहायता करने करने के लिए कहती है तथा बाद में कई पत्र लिखकर उससे सहायता के लिए पटना आने का आग्रह भी करती है।
श्यामा का घर छोड़कर कर जाने का उसे बहुत दुःख है इसीलिए उसकी आँखों से धाराप्रवाह आँसू बह रहे है। वह श्यामा को अपनी भावनाओं की सच्चाई तो नहीं बताना चाहता, परन्तु श्यामा उसके हाथ से चित्र खींच कर देख लेती है और उसके एकतरफा प्रेम के बारे में समझ भी जाती है। इसी प्रकार उसकी मूर्खता पर हँसती है और उसे समझाती है वह जाकर मनोरमा की मदद करे और फिर वापस आ जाए। इसी प्रकार कहानी का अंत होता है।
कहानी का उद्देश्य
जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित संदेह एक मनोवैज्ञानिक कहानी है जिसके माध्यम से लेखक ने यह बताने की कोशिश की है कि संदेह या भ्रम का शिकार व्यक्ति मानसिक और भावनात्मक पीड़ा का शिकार होता है। उसमें भटकन की प्रवृत्ति बढ़ जाती है और उसका स्वभाव अत्यंत आत्मकेंद्रित तथा सोच संकुचित हो जाती है। कहानी में मोहन बाबू अपनी पत्नी मनोरमा पर संदेह करते हैं जिसकी वजह से वह विक्षिप्त सा व्यवहार करने लगते हैं। वहीं दूसरी तरफ मनोरमा रामनिहाल से सहायता माँगती है और रामनिहाल को भ्रम हो जाता है कि मनोरमा उसके प्रति आकर्षित हो चुकी है किन्तु वह विधवा श्यामा से भी प्रेम करता है। रामनिहाल की यह असमंजस की स्थिति उसे मानसिक पीड़ा पहुँचाती है। अत: व्यक्ति को अपने विवेक का इस्तेमाल कर हर तरह के संदेह से उबरने की कोशिश करनी चाहिए।
शीर्षक की सार्थकता
जयशंकर प्रसाद जी द्वारा लिखित कहानी, संदेह एक मनोवैज्ञानिक कहानी है, जिसमें उन्होंने मनुष्य के मनोविज्ञान को साहित्य में चित्रित किया है। एक तरफ श्यामा के साथ प्रेम के संदेह में रामनिहाल अपने जीवन को सकारात्मक रूप देने की कोशिश करता है, तो दूसरी तरफ मनोरमा के चरित्र पर संदेह के कारण उसका पति मोहन बाबू का पारिवारिक जीवन अशांत है। रामनिहाल इस संदेह को अपने मन में जगह देते हैं कि मनोरमा उससे प्रेम करती है और श्यामा को रामनिहाल के इस बात पर संदेह है क्योंकि मनोरमा रामनिहाल से प्रेम नहीं करती है। इस कहानी में सभी पात्र संदेह के कारण ही परेशान रहते हैं तथा कहानी आरम्भ से अंत तक संदेह के दायरे में घूमती रहती है। इस तरह कहानी अपने शीर्षक की सार्थकता को सिद्ध करती है।
मनोरमा
मनोरमा एक अत्यंत सुंदर महिला तथा मोहन बाबू की पत्नी है। वैचारिक स्तर पर उसका अपने पति मोहन बाबू से मतभेद रहता है। उसे इस बात का आभास है कि ब्रजकिशोर उसके पति को पागल बनाकर उसकी सारी सम्पत्ति हड़पने की योजना बना रहे हैं। वह बुरे चरित्र वाली स्त्री नहीं है। वह चाहती है कि उसके पति की मनोदशा ठीक हो जाए। वह चाहती है कि उसके पति के मन में ब्रजकिशोर को लेकर जो भी संदेह है, वह दूर हो जाए। वह रामनिहाल से सहायता भी माँगती है।
मोहनबाबू
मोहनबाबू मनोरमा के पति हैं। वे अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति हैं। वे साहित्यिक प्रवृत्ति के भी हैं। गंगा में दीपदान का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यह जीवन के लघुदीप को अनंत की धारा में बहा देने का संकेत है। वे अकपट प्यार के इच्छुक हैं पर मानसिक रूप से बहुत कमज़ोर हैं। मोहन बाबू को अपने रिश्तेदार ब्रजकिशोर और पन्ती मनोरमा पर संदेह था। उन्हें विश्वास हो गया था कि ब्रजकिशोर उनकी पत्नी के साथ मिलकर उनकी संपत्ति के प्रबंधक बनने के लिए उन्हें अदालत में पागल सिद्ध करना चाहते हैं।
रामनिहाल
रामनिहाल कहानी का प्रमुख पात्र है। यह एक सज्जन, परिश्रमी तथा सबकी मदद करने वाला महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था। श्यामा के यहाँ आने से पहले वह यायावर की तरह घूम-घूमकर जीवन व्यतीत करता है। वह अन्तमुर्खी भी है, तभी श्यामा से चुपचाप प्रेम करता है। वह पलायनवादी भी है, तभी परिस्थियों का सामना न कर चुपचाप श्यामा के यहाँ से पटना जाने के लिए समान बाँधता है।
ओह! संसार की विश्वासघात की ठोकरों ने मेरे हृदय को विक्षिप्त बना दिया है। मुझे उससे विमुख कर दिया है। किसी ने भी मेरे मानसिक विप्लवों में मुझे सहायता नहीं दी। मैं ही सबके लिए मरा करूँ। यह अब मैं नहीं सह सकता । मुझे अकपट प्यार की आवश्यकता है। जीवन में वह कभी नहीं मिला!
(i) वक्ता के इस कथन में हमें किस बात की झलक मिल रही है ? वह किससे अपनी बात कहना चाहते हैं ?
(ii) "मानसिक विप्लवों" से क्या तात्पर्य है ? ये हमें क्या नुकसान पहुँचा सकते हैं? वक्ता के संदर्भ में बताइए।
(iii) मोहन बाबू का संक्षिप्त परिचय देते हुए बताइए कि उन्हें किस पर संदेह था और क्यों ?
(iv) कहानी के आधार पर मनोरमा का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर
(i) वक्ता मोहन बाबू के इस कथन से हमें उनकी मन:स्थिति के बारे में पता चल रहा है। उनके साथ अनेक लोगों ने विश्वासघात किया है जिससे वे सभी को अविश्वास की दृष्टि से देखने लगे हैं। वे मानसिक विक्षिप्तता के शिकार हो गए हैं। वे अपनी बातें मनोरमा से कहना चाहते हैं जो उनकी पत्नी है।
(ii) "मानसिक विप्लवों" से तात्पर्य है - मन में उठने वाली हलचल या उथल-पुथल। जीवन में वही व्यक्ति सफलता प्राप्त कर सकता है जिसका मन स्थिर हो लेकिन जिस व्यक्ति का मन अस्थिर या अशांत हो, उसकी सफलता में सदैव संदेह बना रहता है। मानसिक रूप से अस्थिर व्यक्ति अन्य लोगों पर विश्वास नहीं कर पाता है और जल्दी ही उत्तेजित होकर अपनी वाणी और विचारों का संतुलन खो देता है। संदेह कहानी में मोहन बाबू का मन भी अशांत और विक्षिप्त है। वे मानसिक रूप से अत्यंत कमज़ोर हैं। वे अपनी पत्नी मनोरमा पर शक करते हैं और मानसिक पीड़ा सहते हैं।
(iii) मोहन बाबू मनोरमा के पति हैं। वे अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति हैं। वे साहित्यिक प्रवृत्ति के भी हैं। गंगा में दीपदान का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यह जीवन के लघुदीप को अनंत की धारा में बहा देने का संकेत है। वे अकपट प्यार के इच्छुक हैं पर मानसिक रूप से बहुत कमज़ोर हैं। मोहन बाबू को अपने रिश्तेदार ब्रजकिशोर और पन्ती मनोरमा पर संदेह था। उन्हें विश्वास हो गया था कि ब्रजकिशोर उनकी पत्नी के साथ मिलकर उनकी संपत्ति के प्रबंधक बनने के लिए उन्हें अदालत में पागल सिद्ध करना चाहते हैं।
(iv) मनोरमा एक अत्यंत सुंदर महिला तथा मोहन बाबू की पत्नी है। वैचारिक स्तर पर उसका अपने पति मोहन बाबू से मतभेद रहता है। उसे इस बात का आभास है कि ब्रजकिशोर उसके पति को पागल बनाकर उसकी सारी सम्पत्ति हड़पने की योजना बना रहे हैं। वह बुरे चरित्र वाली स्त्री नहीं है। वह चाहती है कि उसके पति की मनोदशा ठीक हो जाए। वह चाहती है कि उसके पति के मन में ब्रजकिशोर को लेकर जो भी संदेह है, वह दूर हो जाए। वह रामनिहाल से सहायता भी माँगती है।
मन्नू भंडारी
मन्नू भंडारी हिन्दी की सुप्रसिद्ध कहानीकार हैं। मध्य प्रदेश में मंदसौर जिले के भानपुरा गाँव में जन्मी मन्नू का बचपन का नाम महेंद्र कुमारी था। लेखन के लिए उन्होंने मन्नू नाम का चुनाव किया। उन्होंने एम० ए० तक शिक्षा पाई और वर्षों तक दिल्ली के मीरांडा हाउस में अध्यापिका रहीं। धर्मयुग में धारावाहिक रूप से प्रकाशित उपन्यास आपका बंटी से लोकप्रियता प्राप्त करने वाली मन्नू भंडारी विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में प्रेमचंद सृजनपीठ की अध्यक्षा भी रहीं। लेखन का संस्कार उन्हें विरासत में मिला। उनके पिता सुख सम्पतराय भी जाने माने लेखक थे।
मन्नू भंडारी ने कहानियां और उपन्यास दोनों लिखे हैं। विवाह विच्छेद की त्रासदी में पिस रहे एक बच्चे को केंद्र में रखकर लिखा गया उनका उपन्यास `आपका बंटी' (१९७१) हिन्दी के सफलतम उपन्यासों में गिना जाता है। मन्नू भंडारी हिन्दी की लोकप्रिय कथाकारों में से हैं। इसी प्रकार 'यही सच है' पर आधारित 'रजनीगंधा' नामक फिल्म अत्यंत लोकप्रिय हुई थी । इसके अतिरिक्त उन्हें हिन्दी अकादमी, दिल्ली का शिखर सम्मान, बिहार सरकार, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, व्यास सम्मान और उत्तर-प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा पुरस्कृत।
कठिन शब्दार्थ
गलतफ़हमी - गलत समझ लेना
घनचक्कर - भ्रमित करने वाला
प्रतीक - चिह्न, प्रतिरूप
पंडिताइन - विदुषी
इकलौती - एकमात्र
सामर्थ्य - क्षमता
साधन - कार्यपूर्ति का माध्यम
मूसलाधार - तेज़ वर्षा
उल्लास - प्रसन्नता
ईर्ष्या - जलन
ढिंढोरा पीटना - सबसे कहते फिरना
नवाबी चलाना - अधिकार जताना
रोब खाना - दबना
हाड़ तोड़कर परिश्रम करना - कड़ी मेहनत करना
तूली - कूँची ( Brush)
शोहरत - प्रसिद्धि
हुनर - कौशल
तमन्ना - इच्छा
निरक्षर - अनपढ़
लोहा मानना - प्रभुत्व स्वीकार करना
फ़रमाइश - माँग
प्रदर्शनी - नुमाइश
मुहावरे एवं अन्य वाक्यांश
चौरासी लाख योनियाँ -- चौरसी लाख जीव-जंतुओं के प्रकार
झंडा लेकर निकल पड़ना - किसी कार्य को बड़े जोर-शोर से करना
शोहरत के ऊँचे कगार पर - प्रसिद्धि की ऊँचाई पर
ज्ञान की छाप लगाई - बुद्धिमानी का परिचय दिया।
शीर्षक की सार्थकता
'दो कलाकार' मन्नू भण्डारी द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध कहानी है। प्रस्तुत कहानी में कथानक शुरू से लेकर अंत तक दो कलाकार सहेलियों के आस-पास घूमता रहता है। एक चित्रकार है, तो दूसरी समाज सेविका। एक कला के प्रति समर्पित है और जीवन के रंगों को कैनवास पर उतारना चाहती है, जबकि दूसरी जीवन का सार सेवा-भाव में खोजती है। इसतरह दोनों की रुचियों को, उनके लक्ष्य को कहानी में स्पष्ट किया गया है। कहानी के अंत में दोनों सहेलियों की मुलाकात जब होती है, तब चित्रा एक चित्रकार के रुप में प्रसिद्धि पा चुकी होती है। जिस भिखारिन के बच्चों वाली चित्र ने चित्रा को प्रसिद्धि के उच्च शिखर पर पहुँचा दिया था, उन्हीं बच्चों का पालन-पोषण अरुणा करती है। अतः यह प्रश्न उभरकर सामने आता है कि कौन कलाकार है ? वह जिसने चित्र बनाया है या वह जिसने पालन-पोषण किया है ? अतः दोनों कलाकार मिलकर कहानी के शीर्षक की सार्थता को सिद्ध करते हैं।
कहानी का उद्देश्य
'दो कलाकार' कहानी के माध्यम से लेखिका मन्नू भण्डारी ने स्पष्ट किया है कि मानव जीवन में कला और संस्कृति का बहुत महत्त्व है। कला के विभिन्न रूपों के माध्यम से मानव-जीवन में आदर्श और यथार्थ का मिलन संभव होता है। कला के विभिन्न रूपों की सार्थकता सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् में ही निहित है। संगीत, नृत्य, चित्रकला, मूर्तिकला आदि कला के कई रूप हैं जिसमें जीवन के सत्य को मानव कल्याण अर्थात् शिवम् के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए, तभी वह कला सुन्दर मानी जाएगी और उसके कलाकार को समुचित सम्मान प्राप्त होगा। प्रस्तुत कहानी में चित्रा ने मृत भिखारिन और उसके दो अनाथ बच्चों की तस्वीर बनाकर जीवन के कटु सत्य को तो अभिव्यक्त कर दिया किन्तु उन बच्चों की अनदेखी कर उसने कला के सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्से शिवम् की अवहेलना कर दी। अत: चित्रा को प्रसिद्धि तो प्राप्त हो गई लेकिन वह श्रेष्ठ कलाकार नहीं बन सकी। वहीं दूसरी ओर अरूणा ने दोनों बच्चों के जीवन को एक नया रूप प्रदान कर, उसे जीवन के सत्य को मानव कल्याण अर्थात् शिवम् के रूप में प्रस्तुत किया है। अतः यहाँ आकर कला का उद्देश्य पूरा हुआ और इसे बताना ही लेखिका प्रमुख उद्देश्य रहा है।
अरूणा
अरुणा कहानी की प्रमुख पात्रा है और चित्रा की घनिष्ठ मित्र है। वह होस्टल में रहकर पढ़ाई करती है, किन्तु उसका मन समाज-सेवा में ज्यादा लगता है। वह हर समय समाज-सेवा में व्यस्त रहती है। वह गरीब बच्चों को पढ़ाना अपना कर्त्तव्य समझती है। वह भावुक, संवेदनशील, दयालु, दूसरों के दुख को अपना दुख समझने वाली, दूसरों की समस्या व संकट में स्वयं को भुला देने वाली लड़की है। एक भिखारिन की मृत्यु होने पर उसके अनाथ बच्चों को अपनाकर अरुणा उन्हें अपनी ममता की छाया प्रदान करती है।
चित्रा
चित्रा अरूणा की घनिष्ठ मित्र है। वह धनी पिता की एकमात्र संतान है। वह होस्टल में रहकर पढ़ाई करती है, किन्तु उसका मन चित्रकला में ज्यादा लगता है। वही उसका संसार है। वह महत्त्वाकांक्षी तथा कलाजगत में यश प्राप्त करने की इच्छुक है। समाज-कल्याण के कार्यों में उसकी रूचि नहीं है। समाज से न जुड़ पाने के कारण ही चित्रा का चरित्र अरूणा के सामने बौना लगता है।
"लौटी तो देखा तीन-चार बच्चे उसके कमरे के दरवाज़े पर खड़े उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। आते ही बोली, "आ गए, बच्चो! चलो, मैं अभी आई।"
प्रश्न
(i) कौन, कहाँ जाने वाली है ?
(ii) चित्रा कौन है? अरुणा ने चित्रा के बनाए चित्र को देखकर क्या कहा?
(iii) अरुणा का चरित्र-चित्रण कीजिए।
(iv) चित्रा चित्रकला से जुड़ी है और अरुणा समाज-सेवा से। क्या इस दृष्टि से अरुणा को भी कलाकार माना जा सकता है? अपने विचार लिखिए।