Vishal Singh
Email : vishal.singh@dpsn.org.inAnjali Mishra
Email : anjali.mishra@dpsn.org.inAnjana Wahie
Email : anjana.wahie@dpsn.org.in(जन्म: 1398 - निधन: 1518)
लेखक परिचय
कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। ये सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। कबीर का अर्थ अरबी भाषा में महान होता है। कबीरदास भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। कबीरपंथी, एक धार्मिक समुदाय है, जो कबीर के सिद्धांतों और शिक्षाओं को अपने जीवन शैली का आधार मानते हैं।
कबीरदास का लालन-पोषण एक जुलाहा परिवार में हुआ। इन्होंने गुरु रामानंद से दीक्षा ली। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने एक कुशल समाज-सुधारक की तरह तत्कालीन समाज में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों, मूर्ति-पूजा, कर्मकांड तथा बाहरी आडंबरों का जोरदार तरीके से विरोध किया। कबीरदास ने हिन्दू-मुसलामन ऐक्य का खुला समर्थन किया। कबीर के दोहों में गुरु-भक्ति, सत्संग, निर्गुण भक्ति तथा जीवन की व्यावहारिक आदि विषयों पर ज़ोर दिया गया है।
कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- साखी, सबद और रमैनी।
कबीर की भाषा में भोजपुरी, अवधी, ब्रज, राजस्थानी, पंजाबी, खड़ी बोली, उर्दू और फ़ारसी के शब्द घुल-मिल गए हैं। अत: विद्वानों ने उनकी भाषा को सधुक्कड़ी या पंचमेल खिचड़ी कहा है।
साखी का अर्थ
साखी संस्कृत 'साक्षित्' (साक्षी) का रूपांतर है। संस्कृत साहित्य में आँखों से प्रत्यक्ष देखने वाले के अर्थ में साक्षी का प्रयोग हुआ है। कालिदास ने कुमारसंभव में इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है।
हिंदी निर्गुण संतों में साखियों का व्यापक प्रचार निस्संदेह कबीर द्वारा हुआ है। गुरुवचन और संसार के व्यावहारिक ज्ञान को देने वाली रचनाएँ साखी के नाम से अभिहित होने लगीं। कबीर ने कहा भी है, साखी आँखी ज्ञान की।
कठिन शब्दार्थ
गोबिंद - ईश्वर
काके - किसके
बलिहारी - निछावर होना
मैं - अहंकार
तामे - उसमें
पाहन - पत्थर
समंद - समुद्र
बनराय - जंगल
पायँ - पैर
साँकरी - तंग
काँकर - कंकड़
पहार - पहाड़
मसि - स्याही
कागद - कागज़
खुदाय - ईश्वर, अल्लाह
पदों के अर्थ
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागू पायँ।
बलिहारी गुरु आपनो, जिन गोबिंद दियौ बताय॥
कबीरदास ने सदैव गुरु का स्थान ईश्वर से श्रेष्ठ माना है क्योंकि गुरु ज्ञान प्रदान करता है, सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है, मोह-माया से मुक्त कराता है। कबीर कहते हैं कि जब मेरे सामने ईश्वर और गुरु दोनों खड़े हो गए तब सच्चे गुरु ने मुझे सर्वप्रथम ईश्वर से हमें अवगत करवाया, हमारा मार्गदर्शन किया, इसलिए गुरु का स्थान ईश्वर से ऊँचा है।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि।
प्रेम गली अति साँकरी, तामे दो न समाहि॥
ईश्वर की प्राप्ति अहंकार शून्य भक्ति से ही हो सकती है। ईश्वर की प्राप्ति में सबसे बड़ी रुकावट मनुष्य का अहंकार होता है। जब तक मनुष्य के हृदय में अहंकार और दंभ होगा, तब तक ईश्वर के दर्शन असंभव हैं, परंतु जिस दिन मनुष्य अपने भीतर के अहंकार का त्याग करता है, उस दिन उसके हृदय में ईश्वर का वास हो जाता है।
काँकर पाथर जोरि कै, मसजिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय॥
प्रस्तुत पंक्ति में कबीरदास ने धार्मिक पाखंड पर व्यंग्यात्मक प्रहार किया है। वे कहते हैं कि एक मौलवी कंकड़-पत्थर जोड़कर मस्जिद बना लेता है और रोज़ सुबह उस पर चढ़कर ज़ोर-ज़ोर से बाँग (अजान) देकर अपने ईश्वर को पुकारता है जैसे कि वह बहरा हो। कबीरदास कहना चाहते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापी हैं और हमें उनकी भक्ति शांत मन से करनी चाहिए।
पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार।
ताते ये चाकी भली,पीस खाय संसार॥
कबीरदास ने मूर्ति-पूजा पर व्यंग्यात्मक प्रहार करते हुए कहा है कि यदि पत्थर से बने ईश्वर की पूजा करने भर से ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है तो वे पत्थर के पहाड़ को भी पूजने को तैयार हैं। कबीर कहते हैं कि पत्थर की मूर्ति से तो पत्थर की बनी वह चक्की बहुत अच्छी है जिससे अन्न को पीसकर सबकी क्षुधा (भूख) शांत की जा सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर की प्राप्ति दीन-दुखियों की मदद करने से ही संभव है।
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
कवि कबीर ईश्वर के निर्गुण-निराकार रूप की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि ईश्वर के गुण इतने हैं कि उनकी व्याख्या करना कठिन हैं। इसके लिए यदि हम सातों समंदर (यहाँ अर्थ महासागरों से है) को स्याही बना लें, समस्त वन के वृक्षों को लेखनी (कलम) और इस धरती को एक कागज़ की तरह प्रयोग किया जाए, फिर भी श्री हरि के गुणों को लिखा जाना सम्भव नहीं है
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागू पायँ।
बलिहारी गुरु आपनो, जिन गोबिंद दियौ बताय॥
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि।
प्रेम गली अति साँकरी, तामे दो न समाहि॥
काँकर पाथर जोरि कै, मसजिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय॥
पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार।
ताते ये चाकी भली,पीस खाय संसार॥
प्रश्न
(i) कबीरदास ने गुरु को गोविंद से ऊँचा स्थान क्यों दिया है ?
(ii) मनुष्य के हृदय में "मैं" और "हरि" का वास एक साथ संभव क्यों नहीं है ? समझाकर लिखिए।
(iii) "ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय" - पंक्ति में निहित व्यंग्य स्पष्ट कीजिए।
(iv) पत्थर पूजने से यदि भगवान की प्राप्ति होती है, तो इसले लिए कबीर क्या करने को तैयार हैं और क्यों ?
रामधारी सिंह 'दिनकर'
रामधारी सिंह 'दिनकर' हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार हैं। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रान्त के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट उनकी जन्मस्थली है। उन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था।
'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गए। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति है। उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की।
उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। भारत सरकार ने इन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया।
प्रमुख रचनाएँ - कुरुक्षेत्र, रेणुका, हुंकार, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा।
कठिन शब्दार्थ
धर्मराज - युधिष्ठिर, ज्येष्ठ पांडु पुत्र
क्रीत - खरीदी हुई
मुक्त समीरण - खुली हवा
आशंका - भय
विघ्न - अड़चन, बाधा
न्यायोचित - न्याय के अनुसार
सुलभ - आसानी से प्राप्त
भव - संसार, जगत
सम - समान
शमित - शान्त
परस्पर - आपस में
भोग संचय - भोल विलास की वस्तुएँ धन-संपत्ति आदि इकट्ठा करना
विकीर्ण - फैला हुआ
तुष्ट - संतुष्ट
प्रस्तुत कविता “स्वर्ग बना सकते हैं” के माध्यम से कवि ने मानव-जाति को यह समझाने की कोशिश की है कि इस विशाल धरती पर सबका जन्म समान रूप से हुआ है। धरती पर मौजूद समस्त संसधानों पर सम्पूर्ण मानव-जाति का अधिकार है और उसे अपने विकास के लिए उनके उपयोग की स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए किन्तु कुछ स्वार्थी मनुष्यों ने लोभवश उन पर अधिकार जमाना शुरू कर दिया है और समाज में भेद-भाव को जन्म दिया है जिससे संघर्ष की सृष्टि हो रही है। कवि का मानना है कि धरती पर सुख के इतने साधन मौजूद हैं कि उनसे सभी मनुष्यों की आवश्यकताएँ पूर्ण हो सकती हैं। अत: मनुष्यों को अपने लोभ का त्याग कर समाज में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की स्थापना करनी चाहिए और धरती को स्वर्ग के समान बनाने की कोशिश करनी चाहिए।
१. धर्मराज यह भूमि किसी की
नहीं क्रीत है दासी
है जन्मना समान परस्पर
इसके सभी निवासी ।
सबको मुक्त प्रकाश चाहिए
सबको मुक्त समीरण
बाधा रहित विकास, मुक्त
आशंकाओं से जीवन ।
व्याख्या - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि रामधारी सिंह दिनकर जी कहते है कि यह धरती किसी की खरीदी हुई दासी नहीं है .इस पर जन्म लेने वाले सभी एक सामान है . उन सभी को खुला आसमान चाहिए ,जिससे वे धूप और चाँदनी सभी का समान आनंद ले सके . कवि कहते है कि सभी को विकास का अवसर मिलना चाहिए और किसी प्रकार की बाधा उसके विकास को न रोके और न ही किसी के मन में किसी के लिए कोई संदेह नहीं होगा .कवि का कहना है कि इस धरती को स्वर्ग बनाने के लिए यही एक मात्र तरीका है . धरती ,आसमान ,हवा सबके लिए एक समान है और उन पर सबका समान अधिकार है .
२. लेकिन विघ्न अनेक अभी
इस पथ पर अड़े हुए हैं
मानवता की राह रोककर
पर्वत अड़े हुए हैं ।
न्यायोचित सुख सुलभ नहीं
जब तक मानव-मानव को
चैन कहाँ धरती पर तब तक
शांति कहाँ इस भव को ?
व्याख्या - कवि का कहना है कि इस धरती को स्वर्ग बनाने के लिए अनेक बाधाएँ खड़ी हैं। विभिन्न वर्गों में बटें हुए समाज में बराबरी को लाना कठिन है। सभी को न्यायपूर्ण सुख प्राप्त नहीं हो सकता है। जब तक मनुष्य को न्यायरुपी सुख नहीं मिलेगा तब तक उसे चैन नहीं आएगा। अतः कवि ऐसा संसार बनाना चाहता है जहाँ सभी को न्यायोचित सुख के साथ चैन और शान्ति मिले।
३. जब तक मनुज-मनुज का यह
सुख भाग नहीं सम होगा
शमित न होगा कोलाहल
संघर्ष नहीं कम होगा ।
उसे भूल वह फँसा परस्पर
ही शंका में भय में
लगा हुआ केवल अपने में
और भोग-संचय में।
व्याख्या - कवि का मानना है कि जब तक जीवन में समता का सुख नहीं होगा ,तब तक मनुष्य के मन में असंतोष रहेगा और असंतोष के कारण अशांति बनी रहेगी . अन्याय के विरुद्ध मानवता का आन्दोलन का शोर तब तक कम नहीं होगा जब तक प्रकृति के साधन सबको समान रूप से नहीं मिल जाते .समाज में एक दूसरे पर भी संदेह करते हैं .स्वार्थी भावना लाते हैं .अतः इसी भावना के कारण मनुष्य लालचवश भोग और संचय में लगा हुआ है।
४. प्रभु के दिए हुए सुख इतने
हैं विकीर्ण धरती पर
भोग सकें जो उन्हें जगत में,
कहाँ अभी इतने नर?
सब हो सकते तुष्ट, एक सा
सब सुख पा सकते हैं
चाहें तो पल में धरती को
स्वर्ग बना सकते हैं ।
व्याख्या - कवि का कहना है कि ईश्वर ने मनुष्य को अनेक प्रकार के सुख दिए है .वन ,पर्वत ,नदियाँ ,धरती ,सोना उलगने वाली कृषि भूमि ,सोना चाँदी ,जल,मिटटी ,पेड़ -पौधे ,किसी भी साधन की धरती पर कमी नहीं है .धरती पर प्रचुर मात्रा में सुख के साधन है . मनुष्य स्वार्थ रहित होकर यदि इन सुखों को समतापूर्वक भोगे तो सबको सुख भी प्राप्त होगा और सभी संतुष्ट भी रहेंगे .अतः यह धरती स्वरः के समान सुन्दर बन जायेगी .यहाँ भी वहीँ सुख प्राप्त होंगे तो स्वर्ग में प्राप्त होते हैं।
प्रभु के दिए हुए सुख इतने
हैं विकीर्ण धरती पर
भोग सकें जो उन्हें जगत में,
कहाँ अभी इतने नर ?
सब हो सकते तुष्ट, एक सा
सब सुख पा सकते हैं
चाहें तो पल में धरती को
स्वर्ग बना सकते हैं।
प्रश्न
(i) धरती पर किसका दिया हुआ क्या फैला हुआ है ? स्पष्ट कीजिए।
(ii) "कहाँ अभी इतने नर" पंक्ति से कवि क्या समझाना चाहते हैं ?
(iii) यहाँ किनके तुष्ट होने की बात की जा रही है ? वे क्यों तुष्ट नहीं हैं ? वे क्या पाकर संतुष्ट हो सकते हैं ?
(iv) पल में धरती को स्वर्ग कैसे बनाया जा सकता है ?
उत्तर
(i) धरती पर ईश्वर के दिए हुए असीम सुख के साधन फैले हुए हैं। अन्न उत्पन्न करने वाली उपजाऊ मिट्टी, वायु, पर्वत, झरने, नदियाँ, धूप, चाँदनी, सूरज की जीवनदायिनी किरण आदि। मानव इनका उपयोग कर सुख-शांति से पूर्ण जीवन व्यतीत कर सकता है।
(ii) प्रस्तुत पंक्ति द्वारा कवि यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि धरती ने मनुष्य को असीमित संसाधन दिए हैं जिसका उपयोग मनुष्य अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए कर सकता है। प्रकृति में संसधानों का इतना भंडार है कि मनुष्य चाहे भी तो उसका उपयोग कर उसे समाप्त भी नहीं कर सकता है। अत: यदि सबको समान अधिकार मिले तो सभी व्यक्ति इन संसाधनों का भरपूर प्रयोग कर सकते हैं और संसार से वैमनस्य का भाव भी मिट जाएगा।
(iii) यहाँ मनुष्यों के उस वर्ग की बात हो रही है जिनके प्रकृति द्वारा प्रदान किए गए सुख के साधनों पर कुछ स्वार्थी और चालाक लोगों ने अपना अधिकार स्थापित कर लिया है। अभाव से ग्रसित मनुष्यों का यह वर्ग संतुष्ट नहीं है क्योंकि कड़ी परिश्रम के पश्चात भी इन्हें रोटी, कपड़ा और महान जैसी आवश्यक जरूरतों से विमुख रहना पड़ता है। यदि उन लोगों को न्यायोचित अधिकार मिले तो वे भी संतुष्ट हो जाएँगे।
(iv) कवि रामधारी सिंह "दिनकर" प्रगतिशील कवि हैं। उन्होंने सदैव शोषक वर्ग का विरोध किया है और शोषित वर्ग के हितों की रक्षा के लिए अपनी कविताओं का स्वर क्रांतिमय बनाया है। उनका मानना है कि धरती पर सभी मनुष्य समान रूप से जन्म लेते हैं और जन्म लेते ही धरती के समस्त संसाधनों पर उसका अधिकार बनता है। यदि सभी मनुष्यों को न्यायोचित अधिकार प्राप्त हो सके तथा समाज में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की स्थापना संभव हो सके तो धरती को स्वर्ग बनने से कोई नहीं रोक सकता।
गिरिधर कविराय
(जन्म: संवत 1770)
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी के अनुसार- नाम से गिरिधर कविराय भाट जान पड़ते हैं । शिव सिंह ने उनका जन्म – संवत 1770 दिया है, जो सम्भवत: ठीक है। इस हिसाब से उनका कविता-काल संवत 1800 के उपरान्त ही माना जा सकता है। उनकी नीति की कुण्डलियाँ ग्राम-ग्राम में प्रसिद्ध हैं।
गिरिधर कवि ने नीति, वैराग्य और अध्यात्म को ही अपनी कविता का विषय बनाया है। जीवन के व्यावहारिक पक्ष का इनके काव्य में प्रभावशाली वर्णन मिलता है। वही काव्य दीर्घजीवी हो सकता है जिसकी पैठ जनमानस में होती है।
ऐसा अनुमान है कि ये पंजाब के रहने वाले थे, किन्तु बाद में इलाहाबाद के आसपास आकर रहने लगे। इन्होंने कुंडलियों में ही समस्त काव्य रचा। गिरधर कविराय की कुंडलियां अवधी और पंजाबी भाषा में हैं। ये अधिकतर नीति विषयक हैं। गिरिधर कविराय ग्रंथावली में इनकी पांच सौ से अधिक कुडलियाँ संकलित हैं।
कठिन शब्दार्थ
छाँडि - छोड़कर
नारी - नाली
कमरी - काला कंबल
बकुचा - छोटी गठरी
मोट - गठरी
दमरी - दाम, मूल्य
सहस - हजार
काग - कौवा
पतरो - पतला
बेगरजी - नि:स्वार्थ
विरला - बहुत कम मिलनेवाला
बयारि - हवा
धाम - धूप
पाती - पत्ती
जर - जड़
दाय - रुपया - पैसा
तऊ - फिर भी
बानी - आदत
पानी - सम्मान
कुंडली - १
लाठी में गुण बहुत हैं, सदा राखिये संग।
गहरि, नदी, नारी जहाँ, तहाँ बचावै अंग॥
जहाँ बचावै अंग, झपटि कुत्ता कहँ मारै।
दुश्मन दावागीर, होयँ तिनहूँ को झारै॥
कह गिरिधर कविराय सुनो हो धूर के बाठी॥
सब हथियार न छाँड़ि, हाथ महँ लीजै लाठी॥
कवि गिरिधर कविराय ने उपर्युक्त कुंडली में लाठी के महत्त्व की ओर संकेत किया है। हमें हमेशा अपने पास लाठी रखनी चाहिए क्योंकि संकट के समय वह हमारी सहायता करती है। गहरी नदी और नाले को पार करते समय मददगार साबित होती है। यदि कोई कुत्ता हमारे ऊपर झपटे तो लाठी से हम अपना बचाव कर सकते हैं। जब दुश्मन अपना अधिकार दिखाकर हमें धमकाने की कोशिश करे तब लाठी के द्वारा हम अपना बचाव कर सकते हैं। अत: कवि पथिक को संकेत करते हुए कहते हैं कि हमें सभी हथियारों को त्यागकर सदैव अपने हाथ में लाठी रखनी चाहिए क्योंकि वह हर संकट से उबरने में हमारी मदद कर सकता है।
कुंडली - २
कमरी थोरे दाम की,बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह गिरिधर कविराय, मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥
उपर्युक्त कुंडली में गिरिधर कविराय ने कंबल के महत्त्व को प्रतिपादित करने का प्रयास किया है। कंबल बहुत ही सस्ते दामों में मिलता है परन्तु वह हमारे ओढने, बिछाने आदि सभी कामों में आता है। वहीं दूसरी तरफ मलमल की रज़ाई देखने में सुंदर और मुलायम होती है किन्तु यात्रा करते समय उसे साथ रखने में बड़ी परेशानी होती है। कंबल को किसी भी तरह बाँधकर उसकी छोटी-सी गठरी बनाकर अपने पास रख सकते हैं और ज़रूरत पड़ने पर रात में उसे बिछाकर सो सकते हैं। अत: कवि कहते हैं कि भले ही कंबल की कीमत कम है परन्तु उसे साथ रखने पर हम सुविधानुसार समय-समय पर उसका प्रयोग कर सकते हैं।
कुंडली - ३
गुन के गाहक सहस, नर बिन गुन लहै न कोय।
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय॥
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ के एक रंग, काग सब भये अपावन॥
कह गिरिधर कविराय, सुनो हो ठाकुर मन के।
बिनु गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के॥
प्रस्तुत कुंडली में गिरिधर कविराय ने मनुष्य के आंतरिक गुणों की चर्चा की है। मनुष्य की पहचान उसके गुणों से ही होती है, गुणी व्यक्ति को हजारों लोग स्वीकार करने को तैयार रहते हैं लेकिन बिना गुणों के समाज में उसकी कोई मह्त्ता नहीं। जिस प्रकार कौवा और कोयल रूप-रंग में समान होते हैं किन्तु दोनों की वाणी में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है। कोयल की वाणी मधुर होने के कारण वह जनमानस में प्रिय है। वहीं दूसरी ओर कौवा अपनी कर्कश वाणी के कारण सभी को अप्रिय है। अत: कवि कहते हैं कि हमें अपने मन में इस बात की गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि इस संसार में गुणहीन व्यक्ति का कोई महत्त्व नहीं होता है।
कुंडली - ४
साँई सब संसार में, मतलब का व्यवहार।
जब लग पैसा गाँठ में, तब लग ताको यार॥
तब लग ताको यार, यार संग ही संग डोले।
पैसा रहे न पास, यार मुख से नहिं बोले॥
कह गिरिधर कविराय जगत यहि लेखा भाई।
करत बेगरजी प्रीति, यार बिरला कोई साँई॥
प्रस्तुत कुंडली में गिरिधर कविराय ने समाज की रीति पर व्यंग्य किया है तथा स्वार्थी मित्र के संबंध में बताया है। कवि कहते हैं कि इस संसार में सभी मतलबी हैं। बिना स्वार्थ के कोई किसी से मित्रता नहीं करता है। जब तक मित्र के पास धन-दौलत है तब तक सारे मित्र उसके आस-पास घूमते हैं। मित्र के पास जैसे ही धन समाप्त हो जाता है सब उससे मुँह मोड़ लेते हैं। संकट के समय भी उसका साथ नहीं देते हैं। अत: कवि कहते हैं कि संसार का यही नियम है कि बिना स्वार्थ के कोई किसी का सगा-संबंधी नहीं होता।
कुंडली - ५
रहिए लटपट काटि दिन, बरु घामे माँ सोय।
छाँह न बाकी बैठिये, जो तरु पतरो होय॥
जो तरु पतरो होय, एक दिन धोखा देहैं।
जा दिन बहै बयारि, टूटि तब जर से जैहैं॥
कह गिरिधर कविराय छाँह मोटे की गहिए।
पाती सब झरि जायँ, तऊ छाया में रहिए॥
उपर्युक्त कुंडली में गिरिधर कविराय ने अनुभवी व्यक्ति की विशेषता बताई है। कवि के अनुसार हमें पतले पेड़ की छाया में कभी नहीं बैठना चाहिए क्योंकि वह आँधी-तूफ़ान के आने पर टूट कर हमारे प्राण संकट में भी डाल सकता है। इसलिए हमें सदैव मोटे और पुराने पेड़ों की छाया में आराम करना चाहिए क्योंकि उसके पत्ते झड़ जाने के बावज़ूद भी वह हमें पूर्ववत् शीतल छाया प्रदान करते हैं। अत: हमें अनुभवी व्यक्तियों की संगति में रहना चाहिए क्योंकि अनुभवहीन व्यक्ति हमें पतन की ओर ले जा सकता है।
कुंडली - ६
पानी बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़े दाम।
दोऊ हाथ उलीचिए, यही सयानो काम॥
यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥
कह गिरिधर कविराय, बड़ेन की याही बानी।
चलिए चाल सुचाल, राखिए अपना पानी॥
प्रस्तुत कुंडली में गिरिधर कविराय ने परोपकार का महत्त्व बताया है। कवि कहते हैं कि जिस प्रकार नाव में पानी बढ़ जाने पर दोनों हाथों से पानी बाहर निकालने का प्रयास करते हैं अन्यथा नाव के डूब जाने का भय रहता है। उसी प्रकार घर में ज्यादा धन-दौलत आ जाने पर हमें उसे परोपकार में लगाना चाहिए। कवि के अनुसार अच्छे और परोपकारी व्यक्तियों की यही विशेषता है कि वे धन का उपयोग दूसरों की भलाई के लिए करते हैं और समाज में अपना मान- सम्मान बनाए रखते हैं।
कुंडली - ७
राजा के दरबार में, जैये समया पाय।
साँई तहाँ न बैठिये, जहँ कोउ देय उठाय॥
जहँ कोउ देय उठाय, बोल अनबोले रहिए।
हँसिये नहीं हहाय, बात पूछे ते कहिए॥
कह गिरिधर कविराय समय सों कीजै काजा।
अति आतुर नहिं होय, बहुरि अनखैहैं राजा॥
प्रस्तुत कुंडली में गिरिधर कविराय ने बताया है कि हमें अपने सामर्थ्य अनुसार ही आचरण करना चाहिए। कवि कहते हैं कि जिस प्रकार राजा के दरबार में हमें समय पर ही जाना चाहिए और ऐसी जगह नहीं बैठना चाहिए जहाँ से कोई हमें उठा दे।
बिना पूछे किसी प्रश्न का जवाब नहीं देना चाहिए और बिना मतलब के हँसना भी नहीं चाहिए। हमें अपना हर कार्य समयानुसार ही करना चाहिए। जल्दीबाज़ी में ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे राजा नाराज़ हो जाएँ।
साँई सब संसार में, मतलब का व्यवहार।
जब लग पैसा गाँठ में, तब लग ताको यार॥
तब लग ताको यार, यार संग ही संग डोले।
पैसा रहे न पास, यार मुख से नहिं बोले॥
कह गिरिधर कविराय जगत यहि लेखा भाई।
करत बेगरजी प्रीति, यार बिरला कोई साँई॥
प्रश्न
(i) कवि के अनुसार इस संसार में किस प्रकार का व्यवहार प्रचलित है ?
(ii) व्यक्ति के पास रुपया-पैसा न रहने पर मित्रों के व्यवहार में क्या परिवर्तन आ जाता है ?
(iii) "करत बेगरजी प्रीति, यार बिरला कोई साँई" - पंक्ति द्वारा कवि क्या स्पष्ट करना चाहता है ?
(iv) निम्नलिखित शब्दों के अर्थ लिखिए -
गाँठ, बेगरजी, विरला, यार, प्रीति, जगत।
गोस्वामी तुलसीदास
कवि
गोस्वामी तुलसीदास का हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।
गुरु नरहरिदास इनके गुरु थे। तुलसीदास ने भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने राम कथा पर आधारित विश्व-प्रसिद्ध महाकाव्य " रामचरितमानस" की रचना की।
तुलसीदास राम के अनन्य भक्त थे। इनकी भक्ति दास्य भक्ति थी।
तुलसीदास ने ब्रज और अवधि दोनों भाषा में समान रूप से लिखा।
तुलसीदास ने अपनी रचनाओं के द्वारा आदर्श समाज की स्थापना पर जोर दिया जिसमें न्याय, धर्म, सहानुभूति, प्रेम और दया जैसे मानवीय गुणों पर विशेष ध्यान दिया है।
प्रमुख रचनाएँ - गीतावली, कवितावली, दोहावली, पार्वती मंगल, हनुमान बाहुक आदि।
पद - १
ऐसो को उदार जग माहीं।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं।
जो गति जोग विराग जतन करि नहिं पावत मुनि ज्ञानी।
सो गति देत गीध सबरी कहूँ प्रभु न बहुत जिय जानी।
जो सम्पत्ति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ मीन्ही।
सो सम्पदा विभीषण कहँ अति सकुच सहित प्रभु दीन्ही॥
तुलसीदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो।
तौ भजु राम, काम सब पूरन कर कृआनिधि तेरो॥
प्रस्तुत पद में तुलसीदास के आराध्य देव भगवान राम की बात की जा रही है। राम अत्यंत उदार स्वभाव के हैं। उनके समान और कोई नहीं है। राम सेवा के बिना भी दीनों पर दया करते हैं। उनकी दशा देखकर ही राम का हृदय द्रवित हो जाता है और वे उनके दुख दूर कर देते हैं।
गीध (जटायु) के आत्मत्याग और सबरी (शबरी) की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान राम ने उन्हें परम मोक्ष प्रदान किया। जटायु ने सीता की रक्षा करने में अपने प्राणों की परवाह नहीं की और रावण के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ। शबरी ने बड़े भोलेपन से प्रेमपूर्वक राम को अपने चखे हुए मीठे बेर खिलाए थे। भगवान राम प्रेम और भक्ति के वश में हैं।
सोने की लंका की संपदा जो रावण ने कठिन तपस्या करके भगवान शिव से प्राप्त की थी। वह सम्पत्ति रावण का वध करके राम ने विभीषण को अत्यंत संकोचपूर्वक दे दी। कहने का तात्पर्य है कि बिना किसी अभिमान के विभीषण को दे दी।
तुलसीदास भगवान राम का भजन करने के लिए कह रहे हैं क्योंकि राम ही सबसे उदार हैं जिनकी आराधना से मोक्ष प्राप्त होता है। यहाँ सकल सुख के प्रयोग से यह तात्पर्य है कि जिसके मन में जो कुछ भी अभिलाषा है वह सुख उसे राम की आराधना करने से प्राप्त हो जाता है। जैसे भगवान राम ने जटायु को और शबरी को परम-मोक्ष प्रदान किया, विभीषण को स्वर्ण लंका दे दी।
पद - २
जाके प्रिय न राम वैदेही।
तजिए ताहि कोटि वैरी सम जद्पि परम सनेही॥
तज्यो पिता प्रह्लाद, विभीषण वन्धु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज बनितह्नि, भय-मुद मंगलकारी॥
नाते नेह राम के मनियत, सुहुद सुसेव्य जहाँ लौं।
अंजन कहा आँख जेहि फूटे, बहु तक कहौं कहाँ लौं॥
तुलसी सो सब भाँति परमहित पूज्य प्रान ते प्यारो।
जासों होय सनेह राम-पद ऐतो मतो हमारो॥
तुलसीदास प्रस्तुत पद में भगवान राम और सीता के विरोधियों को त्यागने की बात कर रहे हैं। कवि के अनुसार जिसे सीता और राम प्रिय नहीं हैं वह भले ही अपना कितना प्रिय क्यों न हो, उसे बहुत बड़े दुश्मन के समान मानकर त्याग देना चाहिए क्योंकि ऐसे व्यक्तियों के कारण भगवान भक्ति में बाधा उत्पन्न होती है।
प्रह्लाद हिरण्यकशिपु नामक असुर का पुत्र था। प्रह्लाद विष्णु भक्त था जबकि उसका पिता विष्णु विरोधी। प्रह्लाद को उसके पिता ने विष्णु की भक्ति छुड़ाने के लिए अनेक प्रकार की यातनाएँ दीं किन्तु प्रह्लाद ने उसकी आज्ञा नहीं मानी। होलिका उसकी बुआ थी जिसे न जलने का वरदान प्राप्त था। वह हिरण्यकशिपु के कहने पर प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर आग में बैठ गई। उसके भाई ने उसे आग लगा दी। होलिका जल गई पर प्रह्लाद जीवित रहा। अंत में भगवान ने नृसिंह का रूप धारण कर हिरण्यकशिपु का वध किया। राजा बलि ने अपने गुरू शुक्राचार्य का परामर्श अस्वीकार कर दिया था। कृष्ण के लिए ब्रज की बालाओं ने अपने पति का साथ छोड़ा।
भरत की माता का नाम कैकेयी था। उन्होंने अपने पति दशरथ के वचन के अनुसार उनसे दो वरदान माँगे - अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या की राजगद्दी और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास। राम के विरोध के कारण भरत ने माँ कैकेयी का त्याग कर दिया। उन्होंने राजगद्दी का भी बहिष्कार किया।
तुलसीदास कहते हैं कि ऐसे सुरमे को आँख में लगाने से क्या लाभ जिससे आँख ही फूट जाए। ठीक उसी प्रकार जो व्यक्ति राम और सीता के विरोधी हैं, उन्हें त्यागने में ही भलाई है क्योंकि ऐसे व्यक्तियों की संगत से सीता-राम की भक्ति में बाधा उत्पन्न होती है।
तुलसीदास के अनुसार वही व्यक्ति हमारा परम हितैषी, शुभचिंतक और प्राणों से अधिक प्रिय है, जिसने राम के चरणों में स्वयं को स्नेह और भक्ति के साथ अर्पित कर दिया है।
सरिस - समान
द्रवै - पिघल जाते हैं, करुणा करते हैं
विराग - वैराग्य
अरप - अर्पण
सकुच सहित - संकोचपूर्वक
कृपानिधि - दया के सागर
वैदेही - सीता
तजिए - छोड़ दीजिए
कंत - पति
बनितह्नि - स्त्रियों के द्वारा
सुहुद - संबंधी
सुसेव्य - सेवा, आराधना करने योग्य
अंजन - सुरमा, काजल
गीध - जटायु
सबरी - भीलनी जाति की स्त्री जिसने राम को जूठे बेर खिलाए
पषान - अहल्या नाम की स्त्री जिसे राम ने मोक्ष दिया
ब्याध - वाल्मीकि
सुसैव्य - अच्छी तरह से पूजने योग्य
ऐसो को उदार जग माहीं।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं।
जो गति जोग विराग जतन करि नहिं पावत मुनि ज्ञानी।
सो गति देत गीध सबरी कहूँ प्रभु न बहुत जिय जानी।
जो सम्पत्ति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ मीन्ही।
सो सम्पदा विभीषण कहँ अति सकुच सहित प्रभु दीन्ही॥
तुलसीदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो।
तौ भजु राम, काम सब पूरन कर कृआनिधि तेरो॥
प्रश्न
(i) प्रस्तुत पद में किसकी बात की जा रही है ? वह कैसे उदार हैं ?
(ii) गीध और सबरी को किसने, कौन-सा स्थान दिया और कैसे ?
(iii) यहाँ किस सम्पत्ति की बात की जा रही है ? उसे किसने, किस प्रकार प्राप्त किया था ? भगवान राम ने वह सम्पत्ति किसे, किस प्रकार दे दी?
(iv) तुलसीदास किसकी भजन करने के लिए कह रहे हैं ?सकल सुख का प्रयोग कवि ने क्या बताने के लिए किया है ? पद के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
शिवमंगल सिंह 'सुमन
शिवमंगल सिंह 'सुमन का हिन्दी के शीर्ष कवियों में प्रमुख नाम है। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा भी वहीं हुई। ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से बी॰ए॰ और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम॰ए॰ , डी॰लिट् की उपाधियाँ प्राप्त कर ग्वालियर, इन्दौर और उज्जैन में उन्होंने अध्यापन कार्य किया। वे विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के कुलपति भी रहे।
उन्हें सन् 1999 में भारत सरकार ने साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्मभूषण से सम्मानित किया था। 'सुमन' जी ने छात्र जीवन से ही काव्य रचना प्रारम्भ कर दी थी और वे लोकप्रिय हो चले थे। उन पर साम्यवाद का प्रभाव है, इसलिए वे वर्गहीन समाज की कामना करते हैं। पूँजीपति शोषण के प्रति उनके मन में तीव्र आक्रोश है। उनमें राष्ट्रीयता और देशप्रेम का स्वर भी मिलता है।
इनकी भाषा में तत्सम शब्दों के साथ-साथ अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों की भी प्रचुरता है।
प्रमुख रचनाएँ - हिल्लोल, जीवन के गान, प्रलय सृजन, मिट्टी की बारात, विश्वास बढ़ता ही गया, पर आँखें नहीं भरी आदि।
कठिन शब्दार्थ
गति - रफ़्तार
विराम - आराम, विश्राम
पथिक - राही
अवरुद्ध - रुका हुआ
आठों याम - आठों पहर
विशद - विस्तृत
प्रवाह - बहाव
वाम - विरुद्ध
रोड़ा - रुकावट
अभिराम - सुखद
व्याख्या - कवि कहते हैं कि मनुष्य चुनौतियों का सामना करने के लिए पैदा हुआ है। जीवन में जब तक कर्म करने के लिए मार्ग खुला हुआ है तब तक हार मान कर रुकना नहीं चाहिए। कवि कहता है कि जब तक हमें जीवन में सफलता न मिल जाए , तब तक कर्म करना छोड़ना नहीं चाहिए। जब तक हम अपने गंतव्य तक नहीं पहुँचते है, तब तक आराम करने की जरुरत नहीं है। अतः चलना हमारा काम है, इसीलिए हमें सदा कर्म में लगा रहना चाहिए। कवि कहते हैं कर्म करते हुए कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तो हमें घबराना नहीं चाहिए। जीवन में कर्म-पथ पर चलते रहना चाहिए। हमें अपने दुःख - सुख को भूलकर मन को हल्का कर लेना चाहिए। हम सब जीवन पथ के पथिक है। कवि कहते हैं कि मनुष्य को अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए। इसी तरह हमें रास्ते में अनेक साथी मिलते हैं परन्तु सभी का साथ लेकर अपने लक्ष्य को हासिल करना चाहिए।
कवि का मानना है कि मनुष्य जीवन में कुछ भी पूर्ण नहीं है . मनुष्य कभी पाता है तो कभी कुछ खोता है . अतः कभी वह तो प्रसन्नता से झूम उठता है और असफलता मिलने पर निराश होकर आँसू बहाने लगता है . जीवन में सब दिन एक सामान नहीं रहते हैं . कभी सुख मिलता तो कभी दुःख .अतः कवि ईश्वर से प्रार्थना करता है कि न कभी उसकी गति रुके न कभी उसके विचारों में कोई बाधा हो . कवि का कहना है कि सभी के जीवन में सुख दुःख सामान गति से आते रहते है . सुख और दुःख सभी के जीवन के अनिवार्य अंग है .एक हम ही नहीं है जो अकेले हमारे जीवन में सिर्फ दुःख नहीं है . कवि जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है . जीवन पथ की कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करते हुए हमें आगे बढ़ने रहना चाहिए . अतः कवि के अनुसार जीवन में कर्म पथ आगे बढ़ते हुए अगर कठिनाइयों का सामना करना पड़े तो डट कर मुकाबला करना चाहिए।
कवि कहता है कि मनुष्य जीवन में कुछ पूर्ण नहीं होता है . हर आदमी में गुण और अवगुण दोनों का समावेश होता है .हर व्यक्ति में कुछ न कुछ दोष जरुर होते हैं . कवि कहते है कि वह सम्पूर्ण मानव बनना चाहते हैं .इस पूर्णता को पाने के लिए आदमी में कई कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है . कवि के अनुसार , हमें समस्याओं से घबराना नहीं चाहिए . सुख के साथ दुःख ही जीवन का नाम है . हमें अपने लक्ष्य या मंजिल को पाने के लिए निरंतर चलना चाह्हिये .मार्ग में कुछ ऐसे साथी मिले जिन्होंने सदा साथ दिया . कुछ निराश होकर लौट कर गए . जीवन में बहुत से साथी मिलते रहे हैं . अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए उन्ही पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है . जीवन की सफलता का सुख उसे ही प्राप्त होता है जो जीवन पथ पर सदा चलता रहे ,अपने कर्म पर लगा रहे
शिवमंगल सिंह "सुमन" द्वारा रचित कविता "चलना हमारा काम है" प्रेरणादायक कविता है जो निराशा में आशा का संचार करने वाली कविता है। प्रस्तुत कविता से हमने सीखा कि मानव जीवन सुख-दुख, सफलता-असफलता, आशा-निराशा के दो किनारों के बीच निरन्तर चलता रहता है और उसके इसी निरन्तर गतिशीलता में मानवता का विकास निहित है।
अत: सभी परिस्थितियों में आत्मविश्वास बनाए रखते हुए जीवन में गतिशीलता बनाए रखनी चाहिए। जड़ता मानव विकास के लिए खतरनाक है। अत: हमें अपनी बुद्धि की गतिशीलता और रचनात्मकता को कायम रखनी चाहिए।
"चलना हमारा काम है" पंक्ति को बार-बार दोहराकर कवि ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि मानव जीवन को सदैव प्रयत्नशील और गतिशील रहना चाहिए तभी मानव समाज प्रगति के पथ पर अग्रसर हो पाएगा।
जीवन अपूर्ण लिए हुए,
पाता कभी, खोता कभी
आशा-निराशा से घिरा
हँसता कभी रोता कभी।
गति-मति न हो अवरुद्ध, इसका ध्यान आठों याम है।
चलना हमारा काम है।
(i) कवि ने जीवन को अपूर्ण क्यों बताया है?
(ii) "आशा-निराशा से घिरा" से कवि का क्या तात्पर्य है?
(iii) कवि मनुष्य में आठों पहर किस भावना की कामना करते हैं? कवि के विचारों से आप कहाँ तक सहमत हैं?
(iv) यह किस प्रकार की कविता है? इस कविता से आपने क्या सीखा? चलना हमारा काम -पंक्ति को बार-बार दोहराकर कवि क्या संदेश देना चाहते हैं?
उत्तर
(i) कवि ने मानव जीवन को अपूर्ण बताया है क्योंकि मनुष्य को अपने जीवन में सब कुछ प्राप्त नहीं होता। मनुष्य की इच्छाएँ असीमित हैं। मनुष्य़ जीवन की यात्रा पर आगे बढ़ते हुए अपनी इच्छाओं को पूरा करने की कोशिश करता है परन्तु वह सब कुछ प्राप्त नहीं कर सकता। अत: कुछ खोना और कुछ पाना जीवन के अधूरेपन की निशानी है।
(ii) यह मानव स्वभाव का अहम हिस्सा है कि जब उसे जीवन में सफलता प्राप्त होती है तब उसका मन प्रसन्नता से भर उठता है किन्तु असफलता प्राप्त होने पर उसे घोर निराशा होती है। इस प्रकार मनुष्य अपने जीवन में आशा-निराशा के भाव से घिरा रहता है।
(iii) दिन के चौबीस घंटे को आठ पहर में बाँटा जाता है। प्रत्येक पहर में तीन घंटे होते हैं। कवि के अनुसार हमें दिन-रात कठिन परिश्रम करते रहना चाहिए। कवि की यह सोच बिल्कुल सही है कि हमें एक पल के लिए भी निष्क्रिय नहीं होना चाहिए। बुद्धि की गति और सोच निरन्तर गतिशील रहनी चाहिए। यदि मनुष्य की गति रुक जाएगी तो वह अपने लक्ष्य को भूलकर निष्क्रिय हो जाएगा। यह जड़ता का प्रतीक है।
(iv) शिवमंगल सिंह "सुमन" द्वारा रचित कविता "चलना हमारा काम है" प्रेरणादायक कविता है जो निराशा में आशा का संचार करने वाली कविता है। प्रस्तुत कविता से हमने सीखा कि मानव जीवन सुख-दुख, सफलता-असफलता, आशा-निराशा के दो किनारों के बीच निरन्तर चलता रहता है और उसके इसी निरन्तर गतिशीलता में मानवता का विकास निहित है।
"चलना हमारा काम है" पंक्ति को बार-बार दोहराकर कवि ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि मानव जीवन को सदैव प्रयत्नशील और गतिशील रहना चाहिए तभी मानव समाज प्रगति के पथ पर अग्रसर हो पाएगा।
सुभद्राकुमारी चौहान
सन् 1904 में इलाहाबाद के निहालपुर ग्राम में जन्मी सुभद्राकुमारी चौहान की कविताओं में राष्ट्रीय-चेतना और ओज कूट-कूट कर भरा है। बचपन से ही उनके मन में देशभक्ति की भावना भरी हुई थी कि सन् 1921 में अपनी पढ़ाई छोड़ उन्होंने असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। आज़ादी की इस लड़ाई में उन्होंने कई बार जेल-यात्रा की। विवाह के बाद आप जबलपुर में बस गईं।
बिना किसी लाग-लपेट के सीधे-सीधे सच्चा काव्य रचने वाली यह कवयित्री सन् 1948 में एक सड़क दुर्घटना में हमसे बिछड़ गई।
‘मुकुल’ और ‘त्रिधारा’ आपके काव्य संग्रह हैं। इसके अतिरिक्त आपने कहानियाँ भी लिखीं, जो ‘बिखरे मोती’, ‘सीधे-सादे चित्र’ और ‘उन्मादिनी’ नामक कहानी संकलनों में पढ़ी जा सकती हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाओं में देश-प्रेम, मानव-प्रेम और प्रकृति-प्रेम की सफल अभिव्यक्ति हुई है। सुभद्रा जी की “झाँसी की रानी” और “वीरों का कैसा हो वसंत” देश-भक्ति की उत्कृष्ट कविताएँ हैं।
इनकी भाषा अत्यंत सहज और स्पष्ट है जिसमें खड़ीबोली का भरपूर प्रयोग किया गया है।
प्रमुख रचनाएँ – मुकुल, त्रिधारा (काव्य संग्रह) बिखरे मोती, उन्मादिनी सीधे-साधे चित्र (कहानी संग्रह) आदि।
कठिन शब्दार्थ
व्यथित - दुखी
हृदय-प्रदेश - मन
पद-पंकज - चरण रूपी कमल
दीन - गरीब, दुखी, दयनीय अवस्था
दुर्गम मार्ग - जहाँ पहुँचना कठिन हो
सोपान - सीढ़ियाँ
दुर्बल - कमज़ोर
वाद्य - बाजा
तान - सुर
स्फूर्ति - फुरती, तेज़ी, उत्तेजना
फरियाद - विनती, शिकायत, नालिश
मातृ-वेदी - मातृभूमि
वेदी - धार्मिक कार्य हेतु बनाया मंडप
बलिदान - न्योछावर
व्यथित है मेरा हृदय-प्रदेश
चलूँ उसको बहलाऊँ आज ।
बताकर अपना सुख-दुख उसे
हृदय का भार हटाऊँ आज ।।
चलूँ मां के पद-पंकज पकड़
नयन जल से नहलाऊँ आज ।
मातृ-मन्दिर में मैंने कहा-
चलूँ दर्शन कर आऊँ आज ।।
व्याख्या - प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री सुभद्रा कुमार चौहान जी कहती हैं कि उनका ह्रदय व्यथित है। अपने ह्रदय के दुःख को दूर करने के लिए वे माता के मंदिर में जाना चाहती हैं। उनके साथ अपना दुःख साझा करके अपने ह्रदय का बोझ कुछ कम करना चाहती हैं। माता के चरणों को कवयित्री अपने आँसुओं से धोकर अपना दुःख व्यक्त करेगी, इसीलिए वह माता के मंदिर के दर्शन के लिए जाना चाहती हैं।
२. किन्तु यह हुआ अचानक ध्यान
दीन हूं, छोटी हूं, अञ्जान!
मातृ-मन्दिर का दुर्गम मार्ग
तुम्हीं बतला दो हे भगवान !
मार्ग के बाधक पहरेदार
सुना है ऊंचे-से सोपान ।
फिसलते हैं ये दुर्बल पैर
चढ़ा दो मुझको यह भगवान !
व्याख्या - सहसा कवयित्री को ध्यान आता है कि वह दीं हीन हैं और माता के मंदिर जाने का मार्ग दुर्गम हैं, इसीलिए माता से प्रार्थना करती हैं वे उसे मंदिर तक पहुँचने का मार्ग दिखला दे। मंदिर के सीढ़ियां बहुत ऊँची ऊँची हैं, रास्ते में बाधक पहरेदार खड़े हैं, जो कवयित्री का मार्ग रोकने के लिए तत्पर हैं। उसके दुर्बल पैर फिसलते हैं .अतः ऐसी स्थिति में माता ही मंदिर तक पहुँचने में सहायता करें।
३. अहा ! वे जगमग-जगमग जगी
ज्योतियां दीख रहीं हैं वहां ।
शीघ्रता करो, वाद्य बज उठे
भला मैं कैसे जाऊं वहां ?
सुनाई पड़ता है कल-गान
मिला दूं मैं भी अपने तान ।
शीघ्रता करो, मुझे ले चलो
मातृ-मन्दिर में हे भगवान !
व्याख्या - कवयित्री कहती हैं कि मंदिर में दूर से ही जगमग-जगमग ज्योति दिखाई दे रही हैं। साथ ही वाद्य यंत्र बज रहे हैं, इसीलिए वह जल्द से जल्द पहुंचना चाहती हैं , लेकिन उसे कोई उपाय नहीं दिखाई दे रहा है। मंदिर में बज रहे गीतों में वह अपनी तान मिलाना चाहती हैं, इसीलिए वह भगवान से प्रार्थना करती हैं कि जल्द से जल्द वह माता के मंदिर में पहुँचे।
४.चलूं मैं जल्दी से बढ़ चलूं
देख लूं मां की प्यारी मूर्ति ।
अहा ! वह मीठी-सी मुसकान
जगाती होगी न्यारी स्फूर्ति ।।
उसे भी आती होगी याद
उसे ? हां, आती होगी याद ।
नहीं तो रूठूंगी मैं आज
सुनाऊँगी उसको फरियाद ।।
व्याख्या - कवयित्री जल्द से जल्द माता की प्यारी मूर्ति देख लेना चाहती हैं . प्यारी मूर्ति को देखकर उनमे एक अनोखी स्फूर्ति आ जाती है।जिस तरह कवयित्री माँ को याद करती हैं, उसी तरह माँ भी उसे याद करती होंगी। यदि माता कवयित्री को याद नहीं करती हैं ,तो वह उनसे रूठ जायेंगी और अपनी फ़रियाद करेंगी।
५. कलेजा मां का, मैं सन्तान,
करेगी दोषों पर अभिमान ।
मातृ-वेदी पर घण्टा बजा,
चढ़ा दो मुझको हे भगवान् !!
व्याख्या - कवयित्री कहती हैं कि मैं जैसे भी हूँ , जितने भी दोष मेरे अन्दर होंगे, माता सभी दोषों को माफ़ कर देंगी। वह कुमाता नहीं हो सकती हैं। माता की रक्षा के लिए मातृ-वेदी का घंटा बजा है , इसीलिए मैं उनकी रक्षा के लिए अपना बलिदान कर दूँगी।
6. सुनूँगी माता की आवाज,
रहूँगी मरने को तैयार।
कभी भी उस वेदी पर देव !
न होने दूँगी अत्याचार।।
न होने दूँगी अत्याचार
चलो, मैं हो जाऊँ बलिदान
मातृ-मन्दिर में हुई पुकार
चढ़ा दो मुझको हे भगवान् ।
व्याख्या - कवयित्री कहती हैं कि वह भारत माता की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने को तत्पर हैं .माता पर कभी भी अत्याचार नहीं होने देंगी .अपना माता का अपमान व अत्याचार नहीं होने देंगी ,चाहे उन्हें अपने जीवन को न्योछावर करना ही पड़े. जब भी भारत माता की रक्षा के लिए पुकार हो ,तब वह अपना आत्म - बलिदान करने को तत्पर हैं।
केन्द्रीय भाव
मातृ मंदिर की ओर’ देशभक्ति से पूर्ण एक मार्मिक कविता है। कवयित्री देश की गुलामी से व्यथित है और अपने अश्रुओं से भारतमाता के चरणों को धोना चाहती है। वह भारतमाता के मंदिर में जाकर देश की आज़ादी की लड़ाई में भाग लेना चाहती है ताकि गुलामी की जंज़ीर को काट कर उसे बंधन-मुक्त करने में अपनी भूमिका अदा करने में सफल हो सके। कवयित्री भारतमाता की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन का बलिदान करने के लिए तत्पर है।
है मेरा हृदय-प्रदेश,
चलूँ, उसको बहलाऊँ आज।
बताकर अपना सुख-दुख उसे
हृदय का भार हटाऊँ आज॥
चलूँ माँ के पद-पंकज पकड़
नयन जल से नहलाऊँ आज।
मातृ-मंदिर में मैंने कहा...
चलूँ दर्शन कर आऊँ आज॥
प्रश्न
(i) यह कविता किस समय की है? कविता किस भावना से पूर्ण है?
(ii) किसका हृदय व्यथित है और क्यों?
(iii) कवयित्री ईश्वर से क्या प्रार्थना करती हैं और क्यों?
(iv) यहाँ किस माँ की बात हो रही है? उन तक पहुँचने का मार्ग दुर्गम क्यों बताया है? स्पष्ट कीजिए।